राम मंदिर - अगर आप अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करते, तो दुनिया आपका सम्मान नहीं करेगी
- In Politics
- 10:39 AM, Mar 25, 2017
- Shwetank Bhushan
राम मंदिर के मुद्दे पर एक सौहार्दपूर्ण, अदालत के बाहर निपटारा एक बेहतर तरीका होगा ऐसा मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति डी. वाय. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की पीठ ने सुझाव दिया। उनका यह मानना था कि यह एक बेहद संवेदनशील, और भावुक मुद्दा है और यह सबसे अच्छा होगा कि यह निपटारा शांति और सौहार्दपूर्ण ढंग से हो।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर भी बल दिया कि अगर वार्ता का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है तो यह हस्तक्षेप करेगा और समाधान के लिए एक मध्यस्थ नियुक्त करेगा।
यह बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी के आग्रह के जवाब में था। उन्होने सर्वोच्च अदालत से आग्रह किया था कि 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश (जिसमें कहा गया था कि विवादित पक्षों के बीच अयोध्या की जमीन का विभाजन होना चाहिए) को चुनौती देने वाली सारी याचिकाओं के एक बैच को एक साथ सुनने के लिए एक खंडपीठ का गठन किया जाय।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया यह वक्तव्य अगर शर्मनाक नहीं, तो हास्यास्पद ज़रूर है। ये वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने क्रिकेट को खुद के हाथों मे सौंप देने की बात कही थी, जिन्हें दही-हांड़ी और जल्लीकट्टू के उपर फैसले देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई, और राम-जन्मभूमि जैसी संवेदनशील मुद्दे को कहीं और ले जाने के लिए कहा है। शायद ऐसे ही बयानों की वज़ह से लोग न्यायपालिका में विश्वास खो देते हैं।
न्यायपालिका पिछले 25 साल से इस मुद्दे की सुनवाई करती आ रही है और इसके बावज़ूद "अदालत से बाहर निपटारा" का सुझाव देती है। जैसे कि किसी ने कभी ऐसा सोचा ही नहीं था. यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदू पक्ष द्वारा 15 साल तक "अदालत के बाहर निपटारा" की मांग की गई थी, किन्तु, निराशा और निरर्थकता का एहसास होने के बाद ही इसे छोड़ दिया गया था।
जो लोग अनभिग्य हैं, मैं उन्हे याद दिलाना चाहता हूँ की 1949 से ही राम-जन्मभूमि एक कार्यशील मंदिर था और वहाँ नमाज को अनुमति नहीं दी गई थी। जो ढाँचा 1992 में हटा दिया गया था, वह एक विवादित ढांचा था और ऐसा सिर्फ़ न्यायपालिका और राजनीतिक नेतृत्व, दोनों की 42 वर्षों तक दिए गये निरर्थक आश्वासन को लगातार नकारने की वज़ह से हुआ।
सन् 1955 में ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सॉफ शब्दों में क्या कहा था: "यह बहुत ही वांछनीय है कि यह मुकदमा जल्द से जल्द तय किया जाए"।
सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू पक्ष को यह आश्वासन दिया था कि उच्च न्यायालय सभी मामलों का दिसंबर 1991 तक निपटारा कर देगा, लेकिन सुनवाई 1992 में भी जारी रही। जुलाई 1992 में, उच्च न्यायालय ने विश्व हिंदू परिषद को "कार सेवा" रोकने को कहा और यह भी आश्वासन दिया की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी मामलों को तय किया जाएगा। VHP ने कार-सेवा तो बंद कर दी, पर अफसोस की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने शब्दों को पूरा नहीं किया। जब 6 नवंबर 1992 को कार-सेवा का दिन तय किया गया, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 4 नवंबर 1992 को सुनवाई समाप्त कर दी थी। कल्याण सिंह ने फ़ैसले की गुहार लगाई, लेकिन न्यायाधीश छुट्टी पर चले गए। जी हाँ, छुट्टी पर चले गये! इसी तरह माननीया न्यायाधीशों ने सन् 1990-92 के दौरान देश को अपने कर्तव्यों से वंचित किया। कल्पना करें कि 1949-1990 के बीच क्या कुछ नहीं हुआ होगा ।
ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर अनंत धैर्य कौन रखता है? इतना ही नहीं, इसी समय में "शाहबानो मामला" निचली अदालत से उच्च न्यायालय होते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक तेज गति से आगे बढ़ रहा था और उसी गति से एक संवैधानिक संशोधन किया गया। एक समूह के लिए न्याय की यह गति, जबकि इसके विपरीत, बहुमत समुदाय को चार दशकों तक अदालत के चक्कर लगाना, ऐसे में हिंदू पक्ष और VHP को ज़ाहिर चिंता में डाल दिया।
शायद न्यायपालिका के ऐसे भेदभाव के ही कारण लोग इसमें विश्वास को खो देते हैं और कानून को अपने हाथों में लेते हैं। जैसा की "बाबरी" को ध्वस्त करने वालों ने किया। यह न्यायिक मामला 1949 से चल रहा है, और 1992 की घटना न्यायपालिका और राजनीतिक नेतृत्व की विफलता का ही स्वरूप था।
जब इस मामले में सभी विरोधी दलों ने इस बात को माना है की वे न्यायालय के फैसले का सम्मान करेंगे, फिर एक बार सर्वोच्च न्यायालय का इस मामले को दशकों तक सुनवाई के बाद भी, फ़ैसले से इंकार कर देना, भ्रमित कर देने वाला है। सर्वोच्च न्यायालय को सीधे सीधे विवादित स्थल पर एक मंदिर था या नहीं, इस सवाल का उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर फैसला देना चाहिए था।
माननीया राष्ट्रपति जी द्वारा उठाया गया यह एक सरल और परिभाषित कानूनी प्रश्न है, जिससे सभी सहमत थे:
एक नागरिक के रूप में भी, हम सभी को सत्य जानने का अधिकार है, जो सर्वोच्च न्यायालय ने नकारा है। यह ज़ाहिर बात है, की सत्य की स्थापना के बिना, कोई भी सामंजस्य सतही मात्र होगा।
पुरातत्व विभाग ने स्पष्ट रूप से एक मंदिर का अस्तित्व स्थापित किया है। परंतु यह मात्र एक तथ्य है जो सर्वमान्य तभी होगा जब न्यायालय इसपर फ़ैसला दे।
Vishnu-hari inscription under the babri site
यदि बुद्धिमता का प्रयोग पहले नहीं हुआ तो अब कैसे होगा? राजनीतिक परिवर्तन के अलावा आख़िर और क्या बदल गया? अगर यह परिवर्तन नयायालय को इसके परिवेश से बाहर इस मामले के निपटारे को बाध्य कर रहा है, तो ये बेमानी है. क्यूंकी, वर्तमान मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में, इसे मजबूर समझौते के रूप में में देखा जाना लाज़मी है।
हज़ारों सालों से विदेशी आक्रांताओं ने हिंदू मंदिरों को नष्ट कर मस्जिदों का निर्माण किया। अनगिनत हिंदू मंदिरों को कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में ध्वस्त कर अपमानित किया गया, लेकिन तब धर्मनिरपेक्षता पर आँच नहीं आई।
अब फिर धर्मनिरपेक्षियों की बारी है, जिससे हमें अस्पतालों का निर्माण करने का व्याख्यान दिया जा रहा है। चर्चा ऐसी हो रही है, जैसे राम-जन्मभूमि ही एकमात्र ऐसी जगह है जहां एक विश्व स्तर के अस्पताल/विश्वविद्यालय का निर्माण किया जा सकता है, और एक विश्वस्तरीय संस्थान यदि किसी दूसरे जगह बनाया जाय, तो वह कम विश्व स्तर होगा।
हिंदू पक्ष को राम मंदिर के मामले में मुस्लिम पक्ष को जो कुछ भी प्रस्ताव प्रभावित करें या उनके सम्मान को सुनिश्चित करें वह करना चाहिए। कोई ऐसा प्रस्ताव जो उन्हें खुशी और शांति से सहमत हों, और जो सुदृढ़ परस्पर संबंध के निर्माण में एक लंबा रास्ता तय करे।
लेकिन अयोध्या में एक राम मंदिर का होना निर्विवाद भी है, अजेय भी। विष्णु अवतार श्रीराम हमारी धार्मिक पहचान हैं और हमारी इस महान सभ्यता की विरासत भी। कोई भी देश, जिसे अपनी पहचान और अपने अतीत पर गर्व नहीं है, उसका विनाश बाधित है। एक समाज जो अपने अतीत और संस्कृति के साथ निहित है, वह स्थिर भी है और मजबूत भी।
अगर आप अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करते, तो दुनिया आपका सम्मान नहीं करेगी। आप अंततः, किसी और के एक नकलची संस्करण बन जाएँगे। पाकिस्तान एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसका कोई जड़ नहीं, कोई संस्कृति नहीं। वे अरब राष्ट्र बनना चाहते थे, अब देखें कि वे क्या बन गए हैं। आप अपनी पहचान का कभी त्याग नहीं कर सकते।
यदि अयोध्या में राम मंदिर सांप्रदायिक है, तो आपकी धर्मनिरपेक्षता के पाठ पे लानत है।
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