विश्व राजनीति और योग:- विश्व गुरू की परिकल्पना
- In History & Culture
- 03:33 AM, Jun 21, 2018
- Satish Kumar
पिछले दो महीनों में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हुई। अमेरिका और रूस के बीच द्वंद और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई। अंतर्राष्ट्रीय हलकों में तृतीय विश्व युद्ध की आशंका जताई जाने लगी। पुनः उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया में 68 वर्षों बाद वार्ता की शुरूआत हुई। पुनः यह समीकरण अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच भी बना। उत्तर कोरिया ने अपने आण्विक अस्त्रों को समाप्त करने की बात मान ली लेकिन उस बात को कार्यरूप देना अभी शेष है। दरअसल विश्व राजनीति की हर पहल जिन सिद्धांतों और नियमों पर चलता है। वह क्षल, कपट और शक्ति की अवधारणा से आगे बढ़ता है। उसमें एक दूसरे को तहस-नहस करने की रणनीति होती है। किसी भी तरह से मानवीय मूल्यों या विश्व कल्याण की सोच विकसित नहीं होती। कई बार ऐसा लगता है कि उत्तर कोरिया, लीबिया या म्यांमार या कई अन्य देश उद्दंड या घोर शांति विरोधी देश है। क्योंकि उनको देखने और समझने का नजरियां पूरी तरह से पश्चिमी दृष्टि रही है। उनको अलग से समझने की कोशिश ही नहीं की गई। अमेरिकी और पश्चिमी देशों की प्रयोगशालाओं में जिन सिद्धांतों को विकसित किया गया, वही विश्व राजनीति का मार्गदर्शन और नियम बन गए। उस लकीर से कोई हटा तो उसे अपराधी मान लिया गया। विषय चाहे लोकतंत्र का हो या आतंकवाद का हर विषय पर उनकी दादागिरी रही है। जहाँ लाभ मिले उसे लोकतांत्रिक कह दिया गया और जहाँ नहीं मिला उसे आतंकवादी। पाकिस्तान दशकों से आतंकवादी गिरोह का अड्डा बना हुआ था, जिसकी दुहाई भारत वर्षों से कर रहा था लेकिन बात नहीं मानी गई। वहीं म्यांमार और उत्तर कोरिया को आर्थिक गिरेबान में जकड़ लिया गया।
प्रश्न यहां पर छुटपुट घटनाओं को लेकर नहीं है। प्रश्न हवा और परिवेश को बदलने को लेकर है। क्या शक्ति अवधारणा के बूते पर चलाई जा रही विश्व अर्थव्यवस्था दुनिया में अमन-चैन स्थापित कर पाएगी? किताबों में बच्चों को पढ़ाया जाता है कि 19वीं शताब्दी अंग्रेजों की थी, 20वीं शताब्दी अमेरिका की और 21वीं शताब्दी चीन की होने वाली है। तीनों शताब्दियों में देश बदले, जगह बदली लेकिन नियम और हालात नहीं बदले। लूट-खसोट, मारपीट, खूनी संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय जगत की परिपाटी बनी रही। चीन का नव उपनिवेशवाद छल और धूर्तता पर आगे बढ़ रहा है। अफ्रीकी देश और लैटिन अमेरिका के चंद देश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। उनका जमकर आर्थिक दोहन किया जा रहा है। यही बात अंग्रेजों और अन्य औपनिवेशिक देशों ने की थी।
क्या इस व्यवस्था से निजात मिल सकती है? यह प्रश्न अत्यंत गंभीर है। राष्ट्र राज्य की पश्चिमी परिभाषा ने ही सब तरह से समाज और राज्य के बीच के आपसी रिश्तों को इस तरह बांट दिया है कि उनको सजाने और संवारने में कई विसंगतियां सामने आ जाती है। इसके बावजूद रास्ते हैं। परिवर्तन संभव है लेकिन उसके लिए गंभीर कोशिश करनी होगी। योग सिद्धांत एक मार्ग है जो विश्व व्यवस्था की विखण्डित तस्वीर को जोड़ सकता है। यह परिकल्पना भारतीय है। जो अध्यात्म से जुड़ी हुई है। यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। कुछ दिन पहले यह रिपोर्ट एक अमेरिकी थिंक टैंक द्वारा लाई गई कि 2050 तक सबसे अधिक आबादी वाला समूह मुस्लिम देशों को होगा। दूसरे नम्बर पर गैर ईश्वरवादियों का होगा और पुनः इसाई और हिंद मतावलंबियों का है अर्थात इस्लाम जिसका इतिहास ही रक्त रंजित रहा है। हंटिंग्टन की थ्योरी ‘सभ्यताओं का संघर्ष‘ भी इस्लाम की कट्टरता की बात करता है। दूसरा चीन का विशाल हुजूम गैर ईश्वरवाद का प्रवर्तक है। चीन में 61 प्रतिशत आबादी नास्तिक है। वैसे धर्म की वेदना चीनवासियों को भी सताने लगी है। लोग अपने अस्तित्व बोध की बात करने लगे है। इस व्यवस्था में योग सिद्धांत को अंतर्राष्ट्रीय नियामक बनाना आसान काम नहीं है। जब भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में इस सिद्धांत की स्वीकृति दी थी। 21 जून, 2015 से योग दिवस की शुरूआत हुई। बौद्ध धर्म गुरू दलाई लामा ने इसे विश्व व्यवस्था में भारतीय भेंट के रूप में माना और यह घोषणा की कि भारतीय अध्यात्म ही विश्व व्यवस्था को सही रास्ते पर ला सकती है।
योग महज शारीरिक व्यायाम ही नहीं है। यह व्यक्ति को समाज और ब्रह्मण्ड से जोड़ता है। पुनः यहां पर दूसरी चुनौती सिद्धांतों की होगी। विज्ञान और केवल वैज्ञानिक सिद्धांतों जिसे व्यवहारवाद और उत्तर व्यवहारवाद के रूप में टेक्स्ट बुकों में पढ़ा जाता है, वह ब्रह्मण्ड की शक्तियों पर सवालिया निशान उठाएगा। उसे मिथ और मनगढ़ंत कहानियां बताकर झुठलाएगा। जब भारत के प्रधानमंत्री ने गणेश के सूंड की चर्चा करते हुए आधुनिक तकनीक प्लास्टिक सर्जरी की बात कही थी तो उसे लोगों ने हंसी में उड़ाया। जब माता सीता के संदर्भ में टेस्ट ट्यूब बेबी की बात कही गई तो वही व्यंग्य पुनः किए गए। जब महाभारत के युद्ध में प्रयोग किए गए ब्रह्मस्त्र की चर्चा होती है और उसकी तुलना आज की आण्विक शक्तियों से की जाती है तो उस पर ताने कसे जाते हैं। इसलिए सोच को आत्मसात करने की समस्या है। विज्ञान के पुरोधा आईंस्टाइन की बात भी नहीं मानते। आईंसटाइन ने योग और अध्यात्म की खूब प्रशंसा की थी।
योग को अगर अंतर्राष्ट्रीय संबंध से जोड़कर देखे तो कई बातें नियामक के रूप में दिखाई देते हैं। पहला ‘वसुधैव कुटुंबकम‘ अर्थात पूरा विश्व एक परिवार है। यह सिद्धांत किसी उदारवादी या मार्क्सवादी सिद्धांत में नहीं आता। चूंकि भारतीय सेच अध्यात्म पर टिकी है, इस व्यवस्था में हर जीव-जन्तु के लिए भी जगह है। इसमें लालच और ढोंग नहीं है। इसकी शुरूआत व्यक्ति से होती है। दूसरा सिद्धांत ‘एकम् सत्य विपरा बहुधा वंदति‘ सत्य एक है इसके कहने के तरीके अलग-अलग है। आधुनिक वाद-विवाद बहुसंस्कृतिवाद पर चर्चा होती है। जातीय विद्वेष को लेकर बड़े पैमाने पर हत्याएं हो रही है। अफगानिस्तान और पूरे मध्य एशिया में खूनी जंग चल रही है। कारण सत्य को नहीं पहचानने की भूल। प्रश्न यहां पर अत्यंत गंभीर है। इस्लाम श्रेष्ठता की जंग लड़ रहा है। इसाई मिश्नरियां गरीब देशों में धर्म परिवर्तन की कोशिश में है। तीसरा ‘सर्वे भवंतु सुखीनः, सर्वे संतु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु‘ अर्थात सभी सुखी, निरोग और बुद्धिमान बने रहे। यह सोच दुनिया में किसी सिद्धांत में नहीं है।
दरअसल ये सारे सिद्धांत जो वेदों के संग्रहों के उपरांत आए हैं, जिसमें विश्व व्यवस्था को नया स्वरूप देने में सक्षम है लेकिन समस्या स्वीकृति की है। चूंकि भारत विश्व शक्ति के केंद्र में नहीं है। इसलिए इसके सिद्धांत की स्वीकृति भी नहीं है। भारत का पौराणिक इतिहास युद्ध और राज्य व्यवस्था की भी चर्चा करता है। महाभारत युद्ध में भगवान कृष्ण की गीता अध्याय ‘धर्मजनक’ युद्ध की बात करता है। सत्य को स्थापित करने के लिए प्रयोग किया गया, बल हिंसा नहीं है बल्कि धर्म संगत है। प्रो. अमिताभ भट्ट ने इस बात की वकालत की कि ‘‘अगर दुनिया के सारे साहित्य का विनाश हो जाता है और गीता का पाठ बचा रहता है तो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को पढ़ने और समझने में कोई दिक्कत नहीं होगी।“
यह सच है कि कई विद्वानों ने भारतीय अध्यात्मिक शक्ति को दुनिया के लिए महत्त्वपूर्ण माना है। दलाई लामा, मार्टिन लूथर और कइयों ने यह माना है कि भारत धर्म गुरू रहा है और उसकी भूमिका से ही कई समस्याओं का समाधान संभव हो सकता है। योग दिवस की स्वीकृति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिल चुकी है लेकिन इसका अनुपालन शेष है। यह एक सिद्धांत है जिसके विस्तार से दुनिया की समस्याओं का हल निकल सकता है। रोग और गरीबी दलदल में फंसें करोड़ों लोगों को निजात मिल सकता है।
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