नेपाल में चुनाव: भारत विरोध के बूते पर कोई प्रधानमंत्री बन सकता है, टिक नहीं सकता
- In Foreign Policy
- 04:13 PM, Dec 12, 2017
- Satish Kumar
नेपाल में पिछले २६ सालो में २७ प्रधानमंत्री बने है. सामान्यतः प्रधानमंत्री का कार्यकाल एक वर्ष से भी काम रहा है. लेकिन इस बार चुनाव के बाद स्तिथि का जायजा सरकार बनने के बाद ही पता चलेगा. इस बात की पूरी उम्मीद है की वामपंथ गठबंधन की सरकार नेपाल में बनेगी जिसका मुखिया पूर्व प्रधानमंत्री ओली होंगे. २०१५ में भारत विरोध की वजह से उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. ओली ने आतंरिक कलह को भारत के सर मढ़ दिया. प्रचंड ने भी यही गलती अपने पहले के कार्यकाल में की थी, अंततः उन्हें भी अपना पद गवाना पड़ा था. अर्थात भारत महज मिटटी का पुतला नहीं है जिसे अपने ही चौहदी पर धुरकी दी जाये. भारत ‘फर्स्ट नेबरहुड पालिसी’ के अंतर्गत ये बातें बदल गयी है. इसलिए ओली का भारत विरोध और अन्यावश्यक चीन प्रेम उनके लिए फिर मुश्किलों भरा ताज होगा.
उल्लेखनीय है कि अक्टूबर में वामपंथी दलों में एक सोच बानी जो चीन के इसारे पर की गयी. चीन के नीति किसी भी पार्टी को चीन उन्मुख बनाने की रही है. चाहे वो सरकार कांग्रेस की रही हो या राजशाही समर्थन की या वामपंथ की. लेकिन चीन पिछले कुछ वर्षो से इस फिराक में है कि नेपाल में माओवादी कि सरकार बने. पिछले ६ महीने जब कांग्रेस पार्टी के नेता गद्दी पर थे चीन कि कुछ कंपनियों कि ठेकेदारी बंदी कि गयी थी. वामपंथ ने इसका विरोध किया था और चुनावी एजेंडा बांया था कि हमारी सर्कार आने पर पुनः उन संधियों को शुरू किया जाएगा. भारत चीन के अलावा पचिमी देश भी नेपाल के चुनाव पर टकटकी लगाए हुए है. तक़रीबन १६० से ज्यादा गण्यमान्य लोग पश्चिमी देशो से आकर नेपाल के निस्पछ चुनाव का मुयाना कर रहे .
नेपाल में लोकतान्त्रिक ढाचा अभी भी मजबूती नहीं पकड़ पाया है, मिटटी गिली है, टूटने और चटकने का डर है. सितम्बर में नगरपालिका और पंचायत का चुनाव २० वर्षो बाद सफलता पूर्वक संपन्न हुआ, उसके बाद ही कैबिनेट कि मान्यता के तहत १६५ संसदीय छेत्रो का सीमांकन किया गया जिस पर संविधान कि मुहर भी लगी. अनुछेद २७५ के अनुसार यह मन गया कि यह सीमांकन २० वर्षो तक बदला नहीं जाएगा. अर्थात फर्स्ट पास्ट वोट सिस्टम के तहत १६५ सदस्यों का चुनाव होगा और ११० सदस्यों का अनुपातिक प्रतिनिधित्व के द्वारा. अनुपातिक प्रतिनिधित्वा के तहत कम से काम हर पार्टी को ३ प्रतिशत कुल डाले गए मत का प्राप्त होना चाहिए. जिस पार्टी को जितना अधिक प्राप्त होगा उसका प्रतिशत संसद में उतना ही बेहतर होगा. चुनव सभा के अनुसार करीब ९० से ज्यादा राजनितिक दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया है. लेकिन संगर्ष दो गठबंधनों में ही है. सात राज्यों के विधान सभा का भी चुनाव साथ में हुआ है, इसलिए छेत्रीय स्तर पर किस पार्टी कि सरकार बनती है वो भी अहम् है. राजनीती काठमंडू केंद्रित रहती है या संघीय स्वरुप लेती है. यह भी बात चुनाव के बाद ही पता चल पाएगा
नेपाल के दूसरे चरण के चुनाव में भारत नेपाल सीमा पर हिंसा की सुचना है. चूकि दूसरा चरण मैदानी इलाको में है. हालांकि इसका उत्तर प्रदेश से लगी नेपाल सीमा पर कोई खास असर नहीं है। पहली बार प्रतिनिधि सभा का चुनाव संविधान लागू होने के पश्चात नेपाल में होने जा रहा है। 1751 किमी की भारत-नेपाल सीमा में 68 किलोमीटर का हिस्सा सिद्धार्थनगर जिले से जुड़ा है। दो चरणों में होने वाला यह चुनाव दशक लंबे गृह युद्ध के बाद आम सहमति से तैयार किए गए संविधान के तहत कराए जा रहे हैं. वर्ष 2006 में दस साल से चला आ रहा माओवादी चरमपंथ खत्म हुआ था और नेपाल में राजशाही की जगह लोकतंत्र ने ले ली थी. नेपाल की राजनीतिक स्थिरता के लिए संसदीय चुनाव का होना अत्यंत ही जरुरी था, नहीं तो २१ जनवरी २०१८ तक अगर नयी सरकार गठित नहीं होती तो संविधान निरस्त हो जातI, सम्भवतः ऐसा होना नेपाल के लिए खाई में गिरने के सामान था.
नेपाल का चुनाव कई कारणों से महत्वपूर्ण है. मह्त्व केवल नेपाल की राजनीतिक कारणों तक सीमित नहीं है बल्कि इसके बाहरी मह्त्व भी है. बाहरी मह्त्व का अर्थ भारत और चीन के बीच पर्तिस्पर्धा और रस्साकस्सी. नेपाल का बफर स्टेट होना उसकी सामरिक मह्त्व को काफी बहुमूल्य बना देता है. नेपाल की राजनीतिक ब्यवस्था को समझना इसलिए आसान नहीं है क्योंकि बाहरी शक्तिया ब्यस्था पर हाबी है. २०१५ के सविंधान के बनाने के बाद जो बबाल हुआ वह निवर्तमान प्रधानमंत्री ओली के कारण हुआ था. नेपाल के सविंधान की सारी विशंगतियो के लिए भारत को दोषी माना गया. २०१५ की उपरांत नेपाल की राजनीति में कई हिचकोले आए. प्रचंड प्रधानमंत्री की कुर्सी हतियाने की लिए कांग्रेस पार्टी से हाथ मिला ली. सयुंक्त सरकार भी बनी ६ महीने की लिए. लेकिन इसी बीच में दहल की सी.पी एन (माओइस्ट सेंटर) और ओली की सी. पी. एन -उ.एम्.एल की बीच गठबंधन हो गया. छोटी मोटी और साम्यवादी पार्टिया इस गठबंधन में शामिल हो गयी. दूसरी तरफ लोकतान्त्रिक गठबंधन की अंतर्गत कांग्रेस पार्टी और प्रजातंत्र पार्टी की बीच समझोता हुआ है. मधेसी पार्टिया भी कांग्रेस को मदद करेंगी. अर्थात संघर्ष दो दलों गठबंधनों की बीच है. लेकिन इस बात की ज्यादा उम्मीद है की सरकार साम्यवादी गठबँदन की बनेगी. जिसके प्रधानमंत्री प्रत्याशी पूर्व प्रधानमंत्री ओली है. जिनकी राजनीति का मुख्य आधार भारत विरोध की राजनीति है. ओली ने चुनाव प्रचार की दौरान कई बातें कही है जो भारत विरोधी है.
जिस तरीके से भी साम्यवादी दलों की बीच गुपचुप समझौता हुआ है वह महज परचंड और ओली की स्वाभाविक मित्रता नहीं है बल्कि मित्रता बलपूर्वक बनायीं गयी है. यह सब कुछ चीन की इसरो पर किया गया है. ओली ने नेपाल की पहाड़ी इलाको में उग्र राष्ट्रवाद की नीव रखने की कोशिश की है जिसका केवल मज्म भारत विरोध पर टिका हुआ है. इसलिए चुनवी प्रचार में ओली ने १९५० की भारत-नेपाल संधि पर हमला बोला और उन सारे संधियों को लागू करने की बात कही जो ओली की दौरान नेपाल चीन की बीच तय की गयी थी.
ओली के प्रधानमंत्री बनने से भारत और नेपाल के सम्बन्ध में तीखापन आएगा, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता. ओली इस बात की भी वकालत करते है कि पूर्ण बहुमत आने पर साम्यवादी सरकार संसदीय ब्यस्था को बदलने की चुहलबाजी कर सकती है. ऐसा करने से एक राजनीतिक दल कि तहत अधिनायकवादी राष्ट्रपति ब्यस्था की शुरुवात की जा सकती है, जिसके तहत संसदीय मूल्यों आसानी से तोड़ा मरोड़ा जा सकता है. लेकिन काम इतना आसान नहीं होगा. नेपाल क़े प्रधानमंत्री बनने वाला हर ब्यक्ति भली भांति समझ चूका है कि भारत के समर्थन के बीना गद्दी पर बैठना मुमकिन नहीं है. परचंड को भी यह बात २००८ में समझ नहीं आयी थी लेकिन २०१५ में बखूबी समझ गए थे. ओली को भी समझना होगा. दूसरी समस्या साम्यवादिओ के बीच सत्ता की लड़ाई से इंकार नहीं किया जा सकता. प्रचंड पाला पुनः बदल सकते है. अगर नेपाली कांग्रेस और मदेशी पार्टी चुनाव के दूसरे चरण में बहुत बेहतर प्रदर्शन करते है.
भारत के लिए नेपाल का चुनाव कई मायनो में महत्वपूर्ण है. चीन की हस्तछेपवादी और उग्र नीति भारत के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती है, इसके लिए जरुरी है कि नेपाल में मजबूत सरकार हो चाहे कोई भी दल या ब्यक्ति प्रधानमंत्री हो. नेपाल की लचर ब्यस्था न केवल नेपाल कि लिए बल्कि भारत कि लिए ठीक नहीं है.
नेपाल की राजनीती के विभिन चरण को देखने के बाद यह बात सिद्ध हो चुकी है कि भारत विरोध की बिगुल बजाकर कोई भी प्रधानमंत्री नेपाल के तख़्त पर बहुत दिनों तक नहीं रह सकता है. चाहे वो ओली हो या प्रचंड. मोदी की कूटनीति "दो देश एक संस्कृति" नेपाल के लिए काफी असरदार है. नेपाल विषय के जानकर और विधार्थी परिषद् के संघठन मंत्री सुनील अम्बेकर नेपाल और भारत के बीच सांस्कृतिक आयाम को महत्वपूर्ण मानते है. पिछले कई सालो से सुनील अम्बेकर कल्चरल अय्याम के तहत दो देशो को जोड़ने कि कोशिस में लगे हुए है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी नेपाल और भारत के बीच निरंतर बेहतर सम्बन्ध के लिए प्रयासरत है. चीन का सम्बन्ध केवल स्वार्थ और सैनिक लाभ और नुकसान पर टिका हुआ है, भारत का नेपाल प्रेम स्वभाविक है. यह बात वहाँ के वामपंथी नेताओ को समझना होगा.
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