जेनयू (JNU) में राष्ट्रवाद का शंखवाद और वामपंथ की विदाई
- In Current Affairs
- 10:04 AM, Jul 26, 2017
- Satish Kumar
जेनयू की स्तिथि बदलने लगी है. कुलपति महोदय ने राष्ट्र की शक्ति के प्रतीक टैंक को लगाने की बात कही है. दरअसल वामपंथी पक्छो को ये बाते अतिश्योक्ति ही लगेगी क्योंकि उनकी नजर में विश्वविद्यालय राष्ट्र से ऊपर होता है. सरस्वती के मंदिर में विद्या की ही पूजा होनी चाहिए लेकिन जब उसी प्रागण में राष्ट को तोड़ने और विखंडित करने की साजिश रची जा रही हो तो शयद प्रतीकात्मक टैंक लगना कोई गलत नहीं है। जेनयू में अक्सर विवाद नक्सलवाद, अलगाववाद और पृथकतावाद की होती है, जिसमे कश्मीर और नार्थईस्ट को भारत से अलग करने की पुष्टि की जाती है. आजादी और निष्कंटक ब्यक्तिवाद के नाम पर ऐसा हुजूम बनने की कवायद की जाती है जो राष्ट्र भक्ति से दूर हो। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को जहर की पुड़िया माना जाता है. हॉस्टलों में खाने को लेकर लोगो के मत बदले जाते है. तुम अगर मांसाहारी हो तो सब कुछ खा सकते हो. पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दिन भी मांस खा सकते हो. इन छोटी छोटी बातो से धीरे धीरे सैकड़ो विद्यार्थी जो धर्म से जुड़े थे, अन्य वामपंथियों के बहाव में आकर हिन्दू धर्म से विछुब्ध होने लगते है. सच्चे अर्थो में वामपंथी न केवल राष्ट्रवाद को कमजोर करते है बल्कि भारतीय परम्परा को भी तहस नहश करते है. पिछले पांच दशकों में जेनयू में यही सब हुआ। अलगावादियों को पनाह दी गयी. ब्यक्ति को समाज और राष्ट्र से ऊपर मन गया. १९९२ में पूर्वांचल हॉस्टल में चंद लोग जिसमे लड़के और लडकिया साथ में अश्लील फिल्मे देख रहे थे . दुखद आश्चर्य था की विश्विद्यालय प्रशासन के निर्णय के विरोध में वामपंथियों ने कैंपस बंद की धमकी दे दी.युजीबीएम किया गया. कई दिनों तक क्लासेज नहीं हो पायी. बयक्तिगत आजादी का ऐसा तांडव भारतीय सोच और दृस्टि का दुश्मन है।
कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने निशाना साधते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आग उगला है. उनके शब्दो में संघ को सविधान तोड़ने मरोड़ने के लिए दोषी माना है. क्या ये बेचैनी कांग्रेस की हतासा का नतीजा नहीं है? कांग्रेस का बनाया हुआ उदारवादी ढाचा टूटने लगा है. राष्ट्रवाद से खौफ कांग्रेस और वामपंथ को है. कैंपस को अपने घेरे में लेकर वामपंथियों ने इतिहास और अर्थशास्त्र को बदला. राजनीति खुद ही बदल गयी। देशभक्ति विखंडित होने लगा. स्कूल के बच्चे जन गण मन भूलते गए. वामपंथ ने पश्चिमी सिद्धांत को एक मात्र तत्व मन. संघ ने केवल देश को स्थापित और उसके मूल्यों को पुनर्जीवित करने की बात की है सरकार ने इस मुहीम की शुरआत जेनयू से किया. जहा से देश को १०० टुकड़ो में बाटने की बात हो रही थी वही पुस्ताकलय के गलियारों में शहीदों की तस्वीरें लगायी गयी. कुलपति प्रोफ जगदीश कुमार ने यैसा किया जाना विश्यविद्यालय के लिए सौभाग्य माना. लेकिन वामपंथियों की नींदे हराम हो गयी। ६ दशकों का अबेध किला टूट गया. पेपरवाजी शुरू हो गयी. ये कैसी भक्ति? उनकी नजर में तस्वीरें केवल माओत्से तुंग और मार्क्स की होगी। राष्ट्र के हित में राष्ट्र की समझ जरुरी है. इस बात को टैगोर से लेकर गुरूजी ( एम्. स गोलवलकर ) बोलते रहे. चिंतक और संघ के सह कार्यवाहक दत्ता त्रेयजी भी इस बात की वकालत करते है. बात संघ की विचार धरा की नहीं है, बल्कि राष्ट्र निर्माण की है. वर्षो की तपश्या के बाद देश आज़ाद हुआ, चलना भी नहीं सिहे थे की नेहरुवियन सोच ने उदारवाद के नाम पर एक ऐसा वट वृक्छ खड़ा करने की कोशिस की जहा से अपनी सांस्कृतिक विरासत से लोगो को घिर्णा होने लगी इतना बड़ा आघात तो अंग्रेज या आततायी मुग़ल भी नहीं कर पाए थे जितना ६ दशकों में कांग्रेस और वामपंथ ने मिलकर समाज को विघटित किया।
पिछले एक महीने में वामपंथियों ने गौरक्षकों और लिचिंग (हत्या) पर बवाल खड़ा कर दिया है। वामपंथी बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री मोदी की तुलना हिटलर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना नाजियों से करनी शुरू कर दी है। पिछले 3 वर्षों में महत्त्वपूर्ण सप्ताहिक, पाक्षिक और दैनिक समाचार पत्रों को खंगाले तो आधे से ज्यादा अंक और संपादकीय हिंदू राष्ट्र और हिंदुओं के लिखे जा रहे है। पुनः यह भी कहा जाता है कि भारत में विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिनी जा रही है। दरसल वामपंथ का राष्ट्रवाद और मानवीय मूल्य की परिभाषा भारत की जनता पहचान चुकी है; इसका प्रभाव भी भारतीय राजनीति में दिख रहा है। हाशिए तक सिमटी साम्यवादी दल अंति सांसे ले रही है।लेकिन इनका एक महत्त्वपूर्ण ढ़ांचा आज भी जिंदा है, वह है विश्वविद्यालय के भीतर उनकी घुसपैठ। उनकी घुसपैठ वहां वहां कैसे बनी इसकी चर्चा बाद में होगी। पहले मानसिकता और सोच की विवेचना जरूरी है। यह भी बताना जरूरी है कि इनका मठ जनेवि (जेएनयू) है। पिछले कुछ वर्षों में शाखाएं भारत के अन्य विश्वविद्यालयों, हैदराबाद, जामिया, अलीगढ और अन्य कई जगहों पर है।
वामपंथियों की कार्यशैली की महत्त्वपूर्ण विशेषता है मशाल जुलूस के साथ रंग-बिरंगे अल्फाजों के साथ गगनभेदी नारे लगाना। इन्होंने संसद के आतंकी हमले के सरगना को फांसी दिए जाने के विरोध में नारे लगाए। ‘हर घर-घर में अफजल होगा।‘ ‘भारत के सौ टुकड़े होंगे।‘ ‘कश्मीर को आजाद करना होगा‘ जैसे तमाम देश विरोधी नारे लगाए जाते है। यही टोली जो मानवाधिकारों की बात करती है, चीन के नोबेल विजेता श्युबा पर मौन हो जाती है। बुनियादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग करने वाले कवि और तियनमेन हत्याकांड के विरोध करने वाले कवि को जेल में डाल दिया जाता है। सजा 11 वर्षों की होती है। सजा की रिहाई से पहले कवि जिंदगी से रिहा हो जाता है। अत्यंत बाचाल सीताराम येचुरी चुप क्यों हो जाते हैं? क्यों अन्य वामपंथियों की मशाल आग नहीं उगलती, उनकी फौज स्तब्ध हो जाती है।
वामपंथियों ने भारतीय संस्कृति की जितनी आलोचना और तिरस्कार किया है, शायद इतनी आलोचना अंग्रेजों या और किसी ने भी नहीं की होगी। पिछले वर्ष उन्होंने महिषासुर पर्व मनाने की शुरूआत की। तथाकथित दलित चिंतक कंचन इल्लेहा ने भारतीय मातृत्व शक्ति की अधिष्ठाता ‘माँ दुर्गा‘ के संदर्भ में अभद्र शब्दों का प्रयोग किया। यह वहीं लोग है जो दंतेवाड़ा 2010 में 76 सीआपीएफ के सिपाहियों के मारे जाने का जश्न मनाया था। प्रो. डी.एन. झा, निवेदिता मेनन और तमाम भ्रमित वामपंथियों ने ‘फूड फॉर पौलिटिक्स‘ पर परिचर्चा करते हुए कश्मीर को एक अलग राष्ट्र की हिमाकत की थी। तकरीबन यह वही तबका है जो जेएनयू में ‘हवाला‘ को छिपाए हुए बैठा था।
1996 में वरिष्ठ शिक्षक ने अलगाववादी और आतंकियों का जमघट बनता जेएनयू के परिसर पर चिंता व्यक्त करते हुए पत्र लिखा था। पत्र प्रमाणों के साथ था। किस तरह से विभिन्न छात्रावासों में भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं। कश्मीर से लेकर उत्तर पूर्वी राज्यों में अलगववाद का बौद्धिक विश्लेषण विश्वविद्यालयों के प्रांगण में होता है। जिसकी भरण-पोषी सरकार के द्वारा की जाती है। पिछले 5 दशकों में अगर विभिन्न विश्वविद्यालयों को दिए गए अनुदान की चर्चा की जाए तो ज.ने. विश्वविद्यालय का स्थनन नं. एक पर आता है। संख्या और आकार में अत्यंत छोटा होने के बावजूद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का सबसे प्रिय संगठन जेएनयू रहा। इतना ही नहीं, भारत और विश्व के अन्य देशों के बीच संधि और समझौते का सीधा लाभ वहां के शिक्षकों को मिलता है। वामपंथियों ने राष्ट्र के पैसों को अपने सुख में इस्तेमाल कर कश्मीर को आजाद और भारत को बर्बाद करने की कोशिश करते हैं। पाठ्यक्रम में इन महत्त्वपूर्ण समस्याओं की पढ़ाई इस तरह से की जाती है कि भारत एक ऐसा देश है जहाँ पर अल्प संख्यकों के साथ अत्याचार होता है। भारतीय सेना और अर्ध-सैनिक बल राष्ट्र की सुरक्षा नहीं बल्कि अपने ही लोगों पर अत्याचार करने के लिए उन्हें तैनात किया गया है। बुद्धिजीवियों के इन प्रयासों को देखते हुए ही प्रसिद्ध चिंतक और दार्शनिक ‘रूसो‘ ने कहा था कि समाज को विघटित करने का काम और कोई नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों ने ही किया है। प्रश्न उठता है कि जेएनयू वामपंथ का गढ़ कैसे बना। जेएनयू की स्थापना का मूल उद्देश्य अत्यंत अत्कृष्ट था लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के दो फाड थे। एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ अन्य राजनीतिक पार्टियां। वामपंथियों ने दलालों का काम संभाला और कांग्रेस से समझौता किया। समझौता मौखिक था। वामपंथियों को विश्वविद्यालय परिसर दिया गया और कांग्रेस को संसद। शिक्षामंत्री नरूल हसन ने जेएनयू के भीतर ऐसे संकायों और शिक्षकों को विभिन्न कोने से बटोरने का काम किया, जिसके तीन महत्त्वपूर्ण आयाम थे। पहला, धर्म निरपेक्षता को इस तरह से परिमार्जित किया जाने लगा कि अपने रीति रिवाजों का पालन करने वाला दकियानूसी और प्रगति विरोधी है। समय की मांग है कि धर्म एक रूकावट है, बंधक है। यह व्यवस्था महज हिंदू धर्म के साथ की गई। मुसलमानों को नमाज पढ़ने या धर्म पालन को नजरअंदाज किया गया। दूसरा, विश्लेषण यह माना गया कि भारत एक राष्ट्र के रूप में 1947 में आया। इसके पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं था। भारत खण्डों में था। यहां कोई एक भाषा या संस्कृति कभी रही ही नहीं। तीसरा, जितने भी प्रगतिशील लेखक या लेखिका थी। उन्होंने भारत की भर्त्सना के अलावा और कुछ नहीं किया। राजस्थान में हर समय रोने वालों को ‘रूदाली‘ कहा जाता है। वही परम्परा इन वामपंथियों की रही है। कांग्रेस के साथ समझौते के बल पर वामपंथियों में परिसर की राजधानी को इतना वीभत्स बना दिया कि राष्ट्र के सौ टुकड़े की बात की जाने लगी।
जेएनयू के बदलाव को समझने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के चिंतक सुनील अम्बेकर का मानना है कि विश्वविद्यालय परिसर में भूल को सुधारने का समय आ गया है। शिक्षा से न केवल व्यक्ति बल्कि राष्ट्र समृद्ध होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो शिक्षा में परिवर्तन की जरूरत है। हर धुर्त और कालाबाजारियों की समय सीमा होती है। वामपंथियों की विदाई राष्ट्रीय राजनीति से हो चुकी है। अब बारी विश्वविद्यालय परिसर से है। हर व्यक्ति और समुदाय के लिए राष्ट्र सर्वोपरि है। सुखद अनुभूति है कि वर्तमान विश्वविद्यालय प्रशासन पुराने जंग को साफ कर, राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को मजबूत करने का सतत प्रयास कर रहे हैं।
भारत में वामपंथीओ के पहचान के तीन कारण बन गए है. एक कश्मीर दूसरा नार्थईस्ट में अलगाववाद की समस्या और तीसरी हिन्दू राष्ट्र का विरोध. पिछले ५ दसको में पहले दो कारणों पर लेफ्ट ने खूब काम किया. जमकर कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिस की. जेनयू के वामपंथी टीचर एलटीसी का फायदा भी कश्मीर घूमकर उठाया वही कश्मीर को अलग थलग करने की कोशिस की. जबसे मोदी की सरकार बनी है तब से उनकी लड़ाई हिन्दू राष्ट्र को लेकर है
वामपंथियों ने अपने फायदे के लिए भारतीय चिंतको को हड़पने की कोशिस की. उनका तौर तरीका भी चुनिंदा था. उनोहोने आंबेडकर और क्रन्तिकारी भगत सिंह को जान भूझकर अपनया. उनके तर्कों को तोरा गया, विचार को अपने लिहाप में ढकने की कोशिस की गयी. कांग्रेस की मिली भगत थी। जेनयू इसका प्रयोगशाला बना. सेमिनार और पाठ्यकर्मो में यस बतया गया की बाबा भीमराव आंबेडकर और भगत सिंह घोर संघ विरोधी है. ये बात देश के लोगो को नहीं बताई गयी. जो ब्यक्ति राष्ट्र के लिए समर्पित हो, पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी। वो ब्यक्ति वामपंथियों के क़तर में कहा से खरा हो गया. महज "व्हाई ई एम् अथीस्ट" लिखने से महज संघ से दूर नहीं हो जाते. संघ ने इस सोच को बदलने की कोशिस शुरू कर दी है। राष्ट्र निर्माण के लिए ऐसा होना जरुरी है. अगर जेनयू में किये जारहे परिवर्तन देश के लिए जरुरी है. देश के भीतर राष्ट्र की भीतरघात करने का इजाजत और प्रशिक्छण किसी को नहीं दी जा सकती।
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